सर्व प्रथम इसे पढ़ें
विश्व में जितने धर्म (पंथ) प्रचलित हैं, उनमें सनातन धर्म (सनातन पंथ जिसे आदि शंकराचार्य के बाद उनके द्वारा बताई साधना करने वालों के जन-समूह को हिन्दू कहा जाने लगा तथा सनातन पंथ को हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाने लगा, यह हिन्दू धर्म) सबसे पुरातन है।
इस धर्म की रीढ़ पवित्र चारों वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) तथा पवित्र श्रीमद्भगवद गीता है। प्रारंभ में केवल चार वेदों के आधार से विश्व का मानव धर्म-कर्म किया करता था। ये चारों वेद प्रभुदत्त (God Given) हैं। इन्हीं का सार श्रीमद्भगवद गीता है। इसलिए यह शास्त्र भी प्रभुदत्त (God Given) हुआ।
शास्त्रविधि अनुसार साधना करनी चाहिए
ध्यान देने योग्य है कि जो ज्ञान स्वयं परमात्मा ने बताया है, वह ज्ञान पूर्ण सत्य होता है। इसलिए ये दोनों शास्त्र (वेद तथा श्रीमद्भगवद गीता) निःसंदेह विश्वसनीय हैं। प्रत्येक मानव को इनके अंदर बताई साधना करनी चाहिए। वह साधना शास्त्रविधि अनुसार कही जाती है। इन शास्त्रों में जो साधना नहीं करने को कहा है, उसे जो करता है तो वह शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण कर रहा है जिसके विषय में गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में इस प्रकार कहा हैः-
गीता अध्याय 16 श्लोक नं. 23:- जो पुरूष यानि साधक शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परम गति यानि पूर्ण मोक्ष को और न सुख को ही। (गीता अध्याय 16 श्लोक 23)
गीता अध्याय 16 श्लोक नं. 24:- इससे तेरे लिए इस कर्तव्य यानि जो भक्ति कर्म करने योग्य हैं और अकर्तव्य यानि जो भक्ति कर्म न करने योग्य हैं, इस व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से नियत कर्म यानि जो शास्त्रों में करने को कहा है, वो भक्ति कर्म ही करने योग्य हैं। (गीता अध्याय 16 श्लोक 24)
हिन्दू भाईजान! पढ़ें फोटोकाॅपी श्रीमद्भगवत गीता पदच्छेद, अन्वय के अध्याय 16 श्लोक 23-24 की प्रमाण के लिए जो गीता प्रैस गोरखपुर से मुद्रित तथा प्रकाशित है तथा श्री जयदयाल गोयन्दका जी द्वारा अनुवादित है:-
अध्याय 17 श्लोक 1:- इस श्लोक में अर्जुन ने गीता ज्ञान देने वाले प्रभु से प्रश्न किया कि:-
इसका उत्तर अध्याय 17 श्लोक 2-6 तक दिया है। गीता ज्ञान दाता प्रभु का उत्तर:-
संक्षिप्त में इस प्रकार है:-
अध्याय 16 श्लोक 17:- वे अपने आप को ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरूष धन और मान के मद से युक्त केवल नाम मात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधि रहित यजन (पूजन) करते हैं। (गीता 16 श्लोक 17)
अध्याय 16 श्लोक 18:- अहंकार, बल, घमण्ड, क्रोधादि के परायण और दूसरों की निंदा करने वाले पुरूष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ से (गीता ज्ञान दाता से) द्वेष करने वाले होते हैं। (गीता अध्याय 16 श्लोक 18)
अध्याय 16 श्लोक 19:- उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी, नराधमों को (नीच मनुष्यों को) मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ।(गीता अध्याय 16 श्लोक 19)
अध्याय 16 श्लोक 20:- हे अर्जुन! वे मूढ़ (मूर्ख) मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं। फिर उससे भी अति नीच गति को प्राप्त होते हैं यानि घोर नरक में गिरते हैं।
गीता अध्याय 17 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा है कि हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रविधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादि का पूजन करते हैं। वे स्वभाव से कैसे होते हैं। अर्जुन ने गीता अध्याय 7 श्लोक 12-15 में पहले सुना था कि तीनों गुणों यानि त्रिगुणमयी माया अर्थात् रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी आदि देवताओं को पूजने वाले उन्हीं तक सीमित हैं। उनकी बुद्धि उनसे ऊपर मुझ गीता ज्ञान दाता की भक्ति तक नहीं जाती। जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मेरी भक्ति नहीं करते।
इनमें श्लोक 12-15 को फिर दोहराया है। कहा है कि उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है। वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके यानि लोक वेद दंत कथाओं के आधार से अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात् पूजते हैं। जो गीता में निषेध है कि रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी व अन्य देवी-देवताओं की पूजा नहीं करनी चाहिए। वे लोक वेद के आधार से किसी से सुनकर देवताओं को भजते हैं। यह देवताओं की पूजा शास्त्रविधि रहित यानि मनमाना आचरण करते हैं जिसको गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में व्यर्थ साधना बताया है। उसी के विषय में गीता अध्याय 17 श्लोक 1 में अर्जुन ने प्रश्न किया है कि हे कृष्ण! जो व्यक्ति शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से अन्य देवताओं का पूजन करते हैं। उनकी निष्ठा कैसी है यानि उनकी स्थिति राजसी है या सात्विक है या तामसी है?
भावार्थ है कि जो श्री ब्रह्मा जी रजगुण, श्री विष्णु जी सतगुण तथा श्री शिव जी तमगुण व अन्य देवताओं की पूजा करते हैं। वह पूजा है तो शास्त्रविधि रहित, परंतु जो अन्य देवताओं की जो न करने योग्य (अकर्तव्य) पूजा करते हैं, वे स्वभाव से कैसे होते हैं?
गीता ज्ञान देने वाले ने गीता अध्याय 17 श्लोक 2-6 में ऊपर स्पष्ट कर दिया है कि जो सात्विक श्रद्धा वाले यानि अच्छे इंसान हैं, वे तो केवल अन्य देवताओं की पूजा करते हैं। अन्य जो राजसी स्वभाव के हैं, वे राक्षसों व यक्षों की पूजा करते हैं। जो तामसी श्रद्धा- मय यानि स्वभाव के हैं, वे प्रेत और भूतों की पूजा करते हैं।
{ध्यान रहे कि श्राद्ध करना, पिंडदान करना, अस्थियों को गंगा में पंडित द्वारा जल प्रवाह करने की क्रिया, तेरहवीं क्रिया, वर्षी क्रिया, ये सब कर्मकांड कहलाता है जो गीता में निषेध बताया है। वेदों में इसे मूर्ख साधना कहा है।
प्रमाण:- मार्कण्डेय पुराण में ‘‘रौच्य ऋषि की उत्पत्ति’’ अध्याय में रूचि ऋषि ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एकांत में रहकर वेदों अनुसार भक्ति की। जब वे 40 वर्ष के हो गए तो उसके पूर्वज आकाश में दिखाई दिए। वे रूचि ऋषि से बोले (पिता जी, दादा जी, दूसरा दादा जी जो ब्राह्मण यानि ऋषि थे। वे कर्मकांड किया करते थे। जिस कारण से उनकी गति नहीं हुई। वे प्रेत-पितर योनि में कष्ट उठा रहे थे। उन्होंने शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करके जीवन नष्ट किया था। महादुःखी थे। उन्होंने रूचि ऋषि से कहा) बेटा! तूने विवाह क्यों नहीं कराया। हमारे श्राद्ध आदि क्रिया यानि कर्मकांड क्यों नहीं किया? रूचि ऋषि ने उत्तर दिया कि हे पितामहो! वेदों में कर्मकांड को अविद्या (मूर्ख साधना) कहा है। फिर आप मुझे क्यों ऐसा करने को कह रहे हो। पितर बोले, बेटा रूचि! यह सत्य है कि कर्मकांड को वेदों में अविद्या कहा है। आप जो साधना कर रहे हो। यह मोक्ष मार्ग है। हम महाकष्ट में हैं। हमारी गति करा यानि विवाह करा। हमारे पिंडदान आदि कर्म करके भूत जूनी से पीछा छुड़ा। वे स्वयं तो शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करके कर्मकांड करके प्रेत बने थे। अपने बच्चे रूचि को (शास्त्रोक्त भक्ति कर रहा था) सत्य साधना छुड़वाकर नरक का भागी बना दिया। रूचि ऋषि ने विवाह कराया। फिर कर्मकांड किया। फिर वह भी भूत बना। पिंडदान करने से भूत जूनी छूट जाती है। उसके बाद जीव पशु-पक्षी आदि की योनि प्राप्त करता है। क्या खाक गति कराई? सूक्ष्मवेद में कहा है किः-
गरीब, भूत योनि छूटत है, पिंड प्रदान करंत। गरीबदास जिंदा कह, नहीं मिले भगवंत।।
गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में भी स्पष्ट है। गीता अध्याय 9 श्लोक 25:- देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं यानि भूत बनते हैं। मेरा (गीता ज्ञान दाता का) पूजन करने वाले मुझको प्राप्त होते हैं। इसलिए शास्त्र विधि अनुसार भक्ति करना लाभदायक है। ऐसा करो।}
यदि कोई कहे कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी की पूजा उपरोक्त अध्यायों में निषेध नहीं कही है, अन्य देवताओं की पूजा के विषय में कहा है।
उत्तर:- इसका उत्तर यह है कि पूरी गीता में कहीं भी श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी की पूजा करने को नहीं कहा है। इसलिए इनकी पूजा करना गीता शास्त्र में न होने के कारण शास्त्रविधि रहित हुआ जो गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 के अनुसार व्यर्थ सिद्ध होता है। फिर हिन्दू भाईयों ने तो कोई भी देवी-देवता नहीं छोड़ा है जिसकी ये पूजा न करते हों। इति सिद्धम
‘‘हिन्दू भाईजान नहीं समझे गीता ज्ञान-विज्ञान’’।
उपरोक्त गीता के प्रकरण को समझने के लिए यानि प्रमाण के लिए कृपया पढ़ें और आँखों देखें उपरोक्त श्लोकों की फोटोकापियाँ जो श्रीमद्भगवद गीता पदच्छेद, अन्वय से हैं जो भारत की प्रसिद्ध व विश्वसनीय गीता प्रैस गोरखपुर से मुद्रित तथा प्रकाशित है तथा श्री जयदयाल गोयन्दका द्वारा अनुवादित है:-
विशेष:- गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि रजगुण ब्रह्मा जी से उत्पत्ति, सतगुण विष्णु जी से स्थिति तथा तमगुण शिव जी से संहार होता है। यह सब मेरे लिए है। मेरा आहार बनता रहे। गीता ज्ञान दाता काल है जो स्वयं गीता अध्याय 11 श्लोक 32 में अपने को काल कहता है। यह श्रापवश एक लाख मानव को प्रतिदिन खाता है। इसलिए कहा है कि जो रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी से हो रहा है। उसका निमित मैं हूँ। परंतु मैं इनसे (ब्रह्मा, विष्णु, महेश से) भिन्न हूँ।
विशेष:- इस श्लोक 15 में स्पष्ट किया है कि जिन साधकों की आस्था रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी में अति दृढ़ है तथा जिनका ज्ञान लोक वेद (दंत कथा) के आधार से इस त्रिगुणमयी माया के द्वारा हरा जा चुका है। वे इन्हीं तीनों प्रधान देवताओं व अन्य देवताओं की भक्ति पर दृढ़ हैं। इनसे ऊपर मुझे (गीता ज्ञान दाता को) नहीं भजते। ऐसे व्यक्ति राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच (नराधमाः) दूषित कर्म करने वाले मूर्ख हैं। ये मुझको (गीता ज्ञान देने वाले काल ब्रह्म को) नहीं भजते।
विशेष जानकारी:- प्रश्न:- अब हिन्दू भाईजान कहेंगे कि पुराणों में श्राद्ध करना, कर्मकाण्ड करना बताया है। तीर्थों पर जाना पुण्य बताया है। ऋषियों ने तप किए। क्या उनको भी हम गलत मानें? श्री ब्रह्मा जी ने, श्री विष्णु जी तथा शिव जी ने भी तप किए। क्या वे भी गलत करते रहे हैं?
उत्तर:- ऊपर श्रीमद्भगवद गीता से स्पष्ट कर दिया है कि जो घोर तप करते हैं, वे मूर्ख हैं, पापाचारी क्रूरकर्मी हैं। चाहे ब्रह्मा हो, चाहे विष्णु हो, चाहे शिव हो या कोई ऋषि हो। उनको वेदों का क-ख का भी ज्ञान नहीं था। अन्य को तो होगा कहाँ से। गीता में तीर्थों पर जाना कहीं नहीं लिखा है। इसलिए तीर्थ भ्रमण गलत है। शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण है जो गीता में व्यर्थ कहा है।
उत्तर:- पुराणों का ज्ञान ऋषियों का अपना अनुभव है। वेद व गीता प्रभुदत्त (God Given) ज्ञान है जो पूर्ण सत्य है। ऋषियों ने वेदों को पढ़ा। ठीक से नहीं समझा। जिस कारण से लोकवेद के (एक-दूसरे से सुने ज्ञान के) आधार से साधना की। कुछ ज्ञान वेदों से लिया यानि ओम् (ॐ) नाम का जाप यजुर्वेद अध्याय 40 श्लोक 15 से लिया। तप करने का ज्ञान ब्रह्मा जी से लिया। खिचड़ी ज्ञान के अनुसार साधना करके सिद्धियाँ प्राप्त करके किसी को श्राप, किसी को आशीर्वाद देकर जीवन नष्ट कर गए। गीता में कहा है कि जो मनमाना आचरण यानि शास्त्रविधि त्यागकर साधना करते हैं। उनको कोई लाभ नहीं होता। जो घोर तप को तपते हैं, वे राक्षस स्वभाव के हैं।
प्रमाण के लिए:- एक बार पांडव वनवास में थे। दुर्योधन के कहने से दुर्वासा ऋषि अठासी हजार ऋषियों को लेकर पाण्डवों के यहाँ गया। मन में दोष लेकर गया था कि पांडव मेरी मन इच्छा अनुसार भोजन करवा नहीं पाएँगे। मैं उनको श्राप दे दूँगा। वे नष्ट हो जाएँगे।
इसी दुर्वासा ऋषि ने बच्चों के मजाक करने से क्रोधवश यादवों को श्राप दे दिया। गलती तीन-चार बच्चों ने (प्रद्यूमन पुत्र श्री कृष्ण आदि ने) की, श्राप पूरे यादव कुल का नाश होने का दे दिया। दुर्वासा के श्राप से 56 करोड़ (छप्पन करोड़) यादव आपस में लड़कर मर गए। श्री कृष्ण जी भी मारे गए। क्या ये राक्षसी कर्म दुर्वासा का नहीं था?
वशिष्ठ ऋषि ने एक राजा को राक्षस बनने का श्राप दे दिया। वह राक्षस बनकर दुःखी हुआ। वशिष्ठ ऋषि ने अन्य राजा को इसलिए मरने का श्राप दे दिया जिसने ऋषि वशिष्ठ से यज्ञ अनुष्ठान न करवाकर अन्य से करवा लिया। उस राजा ने वशिष्ठ ऋषि को मरने का श्राप दे दिया। दोनों की मृत्यु हो गई। वशिष्ठ जी का पुनः जन्म इस प्रकार हुआ जो पुराण कथा है:- दो ऋषि जंगल में तप कर रहे थे। एक अप्सरा स्वर्ग से आई। बहुत सुंदर थी। उसे देखने मात्र से दोनों ऋषियों का वीर्य संखलन (वीर्यपात) हो गया। दोनों ने बारी-बारी जाकर कुटिया में रखे खाली घड़े में वीर्य छोड़ दिया। उससे एक तो वशिष्ठ ऋषि वाली आत्मा का पुनर्जन्म हुआ। नाम वशिष्ठ ही रखा गया। दूसरे का कुंभक ऋषि नाम रखा।
विश्वामित्र ऋषि के कर्म:- राज त्यागकर जंगल में गया। घोर तप किया। सिद्धियाँ प्राप्त की। वशिष्ठ ऋषि ने उसे राज-ऋषि कहा। उससे क्षुब्ध (क्रोधित) होकर डण्डों व पत्थरों से वशिष्ठ जी के सौ पुत्रों को मार दिया। जब वशिष्ठ ऋषि ने उसे ब्रह्म-ऋषि कहा तो खुश हुआ क्योंकि विश्वामित्र राज-ऋषि कहने से अपना अपमान मानता था। ब्रह्म-ऋषि कहलाना चाहता था।
विचार करो! क्या ये राक्षसी कर्म नहीं हैं? ऐसे-ऐसे ऋषियों की रचनाएँ हैं अठारह पुराण।
एक समय ऋषि विश्वामित्र जंगल में कुटिया में बैठा था। एक मैनका नामक उर्वशी स्वर्ग से आकर कुटी के पास घूम रही थी। विश्वामित्र उस पर आसक्त हो गया। पति-पत्नी व्यवहार किया। एक कन्या का जन्म हुआ। नाम शकुन्तला रखा। कन्या छः महीने की हुई तो उर्वशी स्वर्ग में चली गई। बोली मेरा काम हो गया। तेरी औकात का पता करने इन्द्र ने भेजी थी, वह देख ली। कहते हैं विश्वामित्र उस कन्या को कन्व ऋषि की कुटिया के सामने रखकर फिर से गहरे जंगल में तप करने गया। पाल-पोषकर राजा दुष्यंत से विवाह किया।
विचार करो:- पहले उसी गहरे जंगल में घोर तप करके आया ही था। आते ही वशिष्ठ जी के पुत्र मार डाले। उर्वशी से उलझ गया। नाश करवाकर फिर डले ढोने गया। फिर क्या वह गीता पढ़कर गया था। उसी लोक वेद के अनुसार शास्त्रविधि रहित मनमाना आचरण किया।
एक अगस्त ऋषि हुआ है। उसने तप करके सिद्धियाँ प्राप्त की। सातों समुन्दरों को एक घूंट में पी लिया। फिर वापिस भर दिया अपनी महिमा बनाने के लिए। क्या यही मुक्ति है?
ऐसे-ऐसे ऋषियों की अपनी विचारधारा पुराण हैं। पुराणों में जो ज्ञान वेदों व गीता से मेल नहीं करता, वह लोक वेद है। उसे त्याग देना चाहिए।
इन ऋषियों से प्राप्त लोक वेद को वर्तमान पवित्र हिन्दू धर्म के वर्तमान धर्म प्रचारक, गीता मनीषी, आचार्य तथा शंकराचार्य व महामंडलेश्वर प्रचार कर रहे हैं तथा हिन्दू धर्म के अनुयाई यानि हिन्दू उसी अज्ञान को ढो रहे हैं। जो गीता में मनमाना आचरण बताया है जो व्यर्थ साधना कही है।
हिन्दू भाईजान नहीं समझे गीता का ज्ञान
वर्तमान के हिन्दू धर्म के गीता मनीषियों व शंकराचार्यों को यह भी नहीं पता कि गीता ज्ञान देने वाले ने गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में अपने से अन्य किस परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है। ये कहते हैं कि श्री विष्णु उर्फ श्री कृष्ण यानि गीता ज्ञान दाता से अन्य कोई भगवान ही नहीं है।
वास्तविकता इस प्रकार है:-
गीता का ज्ञान बताने वाले ने गीता अध्याय 7 के श्लोक 29 में अर्जुन को बताया था कि ‘‘जो साधक जरा (वृद्धावस्था) मरण (मृत्यु) से छुटकारा (मोक्ष) चाहते हैं व तत् ब्रह्म से, सम्पूर्ण आध्यात्म से तथा सर्व कर्मों से परिचित हैं।
अर्जुन ने गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में प्रश्न किया कि गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में जो तत् ब्रह्म कहा है, वह क्या है? इसका उत्तर गीता ज्ञान देने वाले प्रभु ने गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में बताया है कि वह ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है।
इसके बाद गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 8 श्लोक 5, 7 में अर्जुन को अपनी भक्ति करने को कहा है तथा इसी अध्याय 8 श्लोक 8-9-10 में अपने से अन्य परम अक्षर ब्रह्म यानि सच्चिदानंद घन ब्रह्म की भक्ति करने को कहा है। यह भी स्पष्ट किया है कि जो मेरी भक्ति करता है, वह मुझे प्राप्त होता है। जो तत् ब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करता है, वह उसी को प्राप्त होता है। फिर अपनी भक्ति का मंत्र ओम् (ॐ) यह एक अक्षर बताया है तथा तत् ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म/दिव्य परमेश्वर सच्चिदानंद घन ब्रह्म) की भक्ति का तीन नाम का ‘‘ओम् (ॐ) तत् सत्’’ बताया है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ने उसी परम अक्षर ब्रह्म की शरण में जाने से परम शांति को तथा (शाश्वतम् स्थानम्) सनातन परम धाम (जिसे संत गरीबदास जी ने सत्यलोक/अमरलोक कहा है।) को प्राप्त होना संभव बताया है।
गीता का ज्ञान समझे संत रामपाल दास विद्वान
उपरोक्त ज्ञान संत रामपाल जी द्वारा बताया व गीता शास्त्र में सत्संगों के माध्यम से वीडियो में दिखाया है। हमें यानि हिन्दुओं को दिखाया व निष्कर्ष निकालकर समझाया है। जिसको हमारे हिन्दू धर्म प्रचारक/गुरूजन/मनीषी और मंडलेश्वर नहीं समझ सके। दास (लेखक) ने समझा है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि ‘‘हिन्दू नहीं समझे गीता का ज्ञान’’। {इसे समझे संत रामपाल दास विद्वान।}
विशेष:- हिन्दू भाईयो! कबूतर के आँख बंद कर लेने से बिल्ली का खतरा टल नहीं जाता। यह उसका भ्रम होता है।
सच्चाई को आँखों देखो। स्वीकार करो। आप शिक्षित हो। 21वीं सदी के सभ्य व शिक्षित हो। आज दो सौ वर्ष पुराना भारत नहीं है। जिस समय अपने पूर्वज अशिक्षित व पूर्ण निर्मल आत्मा वाले थे। हमारे अज्ञानी धर्म प्रचारकों/मण्डलेश्वरों/मनीषियों/ आचार्यों/शंकराचार्यों को पूर्ण विद्वान/गीता मनीषी मानकर इनकी झूठ पर अंध-विश्वास (blind faith) किया और इनके द्वारा बताई शास्त्र विधि त्यागकर मनमाना आचरण वाली भक्ति करके अनमोल जीवन नष्ट कर गए और हमने अपने पूर्वजों की परंपरा का निर्वाह आँखें बंद किए हुए शुरू कर दिया। पूरा पवित्र हिन्दू समाज इन तत्त्वज्ञानहीनों द्वारा भ्रमित है। अब तो आँखें खोलो। आप पुनः पढ़ें गीता। आप जानोगे कि गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि हे अर्जुन! जो शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण (भक्ति) करता है, उसे न तो सुख मिलता है, न उसको सिद्धि (सत्य शास्त्रनुकूल साधना से होने वाली कार्य सिद्धि) प्राप्त होती है, न उसकी गति (मोक्ष) होती है।
विचार करें हिन्दू भाईजान! भक्ति इन्हीं तीन वस्तुओं के लिए की जाती है।
शास्त्र में न बताई साधना व भक्ति करने से ये तीनों नहीं मिलेंगी। इसलिए जो गीता में नहीं करने को कहा, वह नहीं करना चाहिए।
गीता अध्याय 16 के श्लोक 24 में यह भी स्पष्ट कर दिया है। कहा है कि:-
गीता अध्याय 16 श्लोक 24:- इससे तेरे लिए हे अर्जुन! कर्तव्य (कौन-सी साधना करनी चाहिए) तथा अकर्तव्य (कौन-सी साधना नहीं करनी चाहिए) में शास्त्र ही प्रमाण हैं।
आप देखें स्वयं गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान देने वाला (इनके अनुसार श्री विष्णु उर्फ श्री कृष्ण जी) कहता है कि
‘‘हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। (गीता अध्याय 4 श्लोक 5)
हे अर्जुन! ऐसा नहीं है कि मैं-तू तथा ये सब राजा व सैनिक पहले नहीं थे या आगे नहीं होंगे। अर्थात् मैं (गीता ज्ञान दाता) तू (अर्जुन) तथा ये सब सैनिक आदि-आदि सब पहले भी जन्मे थे, आगे भी जन्मेंगे। (गीता अध्याय 2 श्लोक 12)
मेरी उत्पत्ति को न तो ऋषिजन जानते हैं, न सिद्धगण तथा न देवता जानते हैं क्योंकि मैं इन सबका आदि कारण (उत्पत्तिकर्ता) हूँ। (गीता अध्याय 10 श्लोक 2)
हिन्दू भाईजान! कृपया पढ़ें फोटोकाॅपी श्रीमद्भगवत गीता पदच्छेद अन्वय के उपरोक्त श्लोकों की यानि गीता अध्याय 16 श्लोक 24, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 जो गीता प्रैस गोरखपुर से मुद्रित है तथा श्री जयदयाल गोयन्दका द्वारा अनुवादित है:-
विचार करें पाठकजन! जो जन्मता-मरता है, वह अविनाशी नहीं है, नाशवान है। नाशवान समर्थ नहीं होता।
उत्तर:- यह उत्तर गीता अध्याय 2 श्लोक 17 तथा गीता अध्याय 15 के श्लोक 16- 17 में तथा गीता अध्याय 18 श्लोक 46, 61 तथा 62 में है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 17:- (गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमेश्वर की महिमा कही है।) नाशरहित तो उसको जान जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। {गीता अध्याय 18 श्लोक 46 में भी अपने से अन्य परमेश्वर की महिमा गीता ज्ञान दाता ने बताई है।}
गीता अध्याय 18 श्लोक 46:- जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है (और) जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 61:- {गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमेश्वर की महिमा बताई है।}
हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को परमेश्वर अपनी माया से (उनके कर्मों के अनुसार) भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 62:- {इस श्लोक में गीता ज्ञान दाता ने अर्जुन को उपरोक्त अपने से अन्य परमेश्वर की शरण में सर्व भाव से जाने के लिए कहा है।} हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से (ही तू) परम शांति को (तथा) सनातन परम धाम यानि सत्यलोक (अमर स्थान) को प्राप्त होगा।
गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में कहा है कि इस संसार में दो पुरूष (प्रभु) हैं। एक क्षर पुरूष तथा दूसरा अक्षर पुरूष। ये दोनों तथा इनके अंतर्गत सब प्राणी नाशवान हैं।
गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में गीता ज्ञान देने वाले ने स्पष्ट कर दिया है कि:-
गीता अध्याय 15 श्लोक 17:- उत्तम पुरूष यानि श्रेष्ठ परमेश्वर तो उपरोक्त क्षर पुरूष और अक्षर पुरूष से अन्य ही है जो परमात्मा कहा जाता है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है और वही अविनाशी परमेश्वर है।
हिन्दू भाईजान! कृपया पढ़ें प्रमाण के लिए उपरोक्त श्लोकों की फोटोकाॅपी श्रीमद्भगवद गीता पदच्छेद, अन्वय से जो गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित है तथा श्री जयदयाल गोयन्दका द्वारा अनुवादित है:-
भ्रम निवारण:- गीता अध्याय 15 श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता ने बताया है कि मैं लोकवेद (दंत कथा) के आधार से पुरूषोत्तम प्रसिद्ध हूँ क्योंकि मैं अपने अंतर्गत सब प्राणियों से उत्तम हूँ।
परमेश्वर गीता ज्ञान दाता से अन्य है
विचार करो:- गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में परम अक्षर ब्रह्म (पुरूष) अपने से अन्य बताया है। श्लोक 5-7 में अपनी भक्ति करने को कहा है तथा गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 8-9-10 में अपने से अन्य परम अक्षर ब्रह्म यानि परम अक्षर पुरूष/ सच्चिदानंद घन ब्रह्म यानि दिव्य परम पुरूष (परमेश्वर) की भक्ति करने को कहा है। गीता अध्याय 8 श्लोक 9 में भी उसी को सबका धारण-पोषण करने वाला बताया है। इसी प्रकार गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में अपने से अन्य परम अक्षर पुरूष को पुरूषोत्तम कहा है। उसी को सबका धारण-पोषण करने वाला अविनाशी कहा है। फिर गीता अध्याय 15 श्लोक 18 में अपनी स्थिति बताई है कि मैं तो लोक वेद (सुनी-सुनाई बातों/दंत कथाओं) के आधार से पुरूषोत्तम प्रसिद्ध हूँ। {वास्तव में पुरूषोत्तम तो ऊपर गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में बता दिया है।}
कुछेक व्यक्ति श्लोक 18 को पढ़कर कहते हैं कि देखो! गीता ज्ञान देने वाला अपने को पुरूषोत्तम कह रहा है। इससे अन्य कोई पुरूषोत्तम नहीं है। उसकी मूर्ख सोच का उत्तर ऊपर स्पष्ट कर दिया है।
उत्तर:- श्रीमद्भगवद् गीता में गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में गीता ज्ञान देने वाले प्रभु ने अपनी भक्ति/पूजा का केवल एक अक्षर ॐ (ओम्) स्मरण करने का बताया है। इसके अतिरिक्त अन्य नाम (अकर्तव्य) न जाप करने वाले हैं।
गीता अध्याय 3 श्लोक 10-15 में यज्ञ करना (कर्तव्य) करने योग्य भक्ति कर्म कहा है। उनमें (परम अक्षर ब्रह्म) अविनाशी परमात्मा को ईष्ट रूप में प्रतिष्ठित करने को कहा है।
इनको करने की विधि तत्त्वदर्शी संत बताता है। यह प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 32-33-34 में भी है। कहा है कि सच्चिदानंद घन ब्रह्म अपने मुख कमल से बोली वाणी में तत्त्वज्ञान बताता है। उससे पूर्ण मोक्ष होता है। उसको जानकर तू कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएगा। (गीता अध्याय 4 श्लोक 32)
गीता अध्याय 4 श्लोक 33:- हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय (धन से खर्च करके की जाने वाली) यज्ञ से ज्ञान यज्ञ यानि तत्त्वदर्शी संत का सत्संग सुनना अधिक श्रेष्ठ है। क्योंकि तत्त्वदर्शी संत धर्म-कर्म व जाप आदि करने की शास्त्रोक्त विधि बताता है। जैसे बिना ज्ञान के कर्ण (छठा पांडव) ने केवल सोना (gold) ही दान किया। उससे उसको स्वर्ग में सोने (gold) के पर्वत पर छोड़ दिया। उसे भूख लगी तो भोजन माँगा। उसे बताया गया कि आपने अन्न दान (धर्म यज्ञ) नहीं किया। केवल सोना दान किया। इसलिए भोजन नहीं मिलेगा। यदि तत्त्वदर्शी संत मिला होता तो कर्ण पाँचों यज्ञ करके पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता। इसलिए गीता अध्याय 4 श्लोक 33 में कहा है कि द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है यानि (ज्ञान यज्ञ) तत्त्वदर्शी संत का ज्ञान सुनने से पता चलता है कि शास्त्रविधि अनुसार कौन से भक्ति कर्म हैं?
गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि उस तत्त्वज्ञान को जो सच्चिदानंद घन परमात्मा अपने मुख से वाणी बोलकर बताता है, उस वाणी में लिखा है। उसको तत्त्वदर्शी संतों के पास जाकर समझ। उनको भली-भांति दण्डवत् प्रणाम करने से उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्त्व को जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।
तत्त्वज्ञान केवल संत रामपाल दास के पास है
वह तत्त्वज्ञान मेरे (लेखक-रामपाल दास के) पास है जो सूक्ष्मवेद (स्वसमवेद) में स्वयं सच्चिदानंद घन ब्रह्म कबीर जी ने अपने मुख कमल से बोली वाणी यानि कबीर वाणी में बोलकर बताया है जो श्री धर्मदास जी (बांधवगढ़ वाले) ने लिखा है। फिर परमेश्वर कबीर जी ने वही ज्ञान अपनी प्रिय आत्मा संत गरीबदास जी को बताया था तथा अपना सत्यलोक दिखाया था। फिर संत गरीबदास जी ने आँखों देखी महिमा कबीर जी की बताई है। सूक्ष्मवेद में सम्पूर्ण आध्यात्म ज्ञान है। चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) का ज्ञान सूक्ष्मवेद से लिया गया है। परंतु अधिक ज्ञान छोड़ा गया है। उसकी पूर्ति करने के लिए परमेश्वर स्वयं पृथ्वी पर आए थे। सम्पूर्ण आध्यात्म ज्ञान बताया था।
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